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Thursday, March 07, 2013

बात निकली

बहुत दिन से कलम से कोई कविता न निकली,
बात ज़ुबां से तो निकली मगर दिल से न निकली।

जाने कब से अरमान सजाये हुए बैठी थी ,
वो दुल्हन जो आज सज-संवरकर न निकली।

बाज़ार-ए-दर्द में मिलीं अच्छी कीमतें,
दिल से मेरे जब एक आह भी न निकली।

वो आये मगर हड़बड़ी में इस कदर,
एक याद भी उनकी ज़ेहन से न निकली।

देखा है जबसे बेवफाई का मंज़र,
न सांस ही निकली, जाँ भी न निकली।

टुकड़ा-टुकड़ा कर समेटी है ज़िन्दगी,
कुछ किरचियाँ न निकलीं, फांसें न निकलीं।

वो था एक छोटा और मामूली किस्सा,
अब तक मन से जिसकी याद न निकली।

अकेलेपन का वो दौर भी अजीब था,
साथ मेरे तब मेरी परछाईं न निकली।

जानते थे बहुत पुराने रिश्तों की कीमत,
जिनकी नश्तर-सी बात ज़रा ठहरकर न निकली।


8 comments:


  1. वो था एक छोटा और मामूली किस्सा,
    अब तक मन से जिसकी याद न निकली।
    bahut sundar .

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  2. बहुत खूब ... कुछ लाईने मेरे स्टाइल में

    इस जहाँ से अभी तक तुम्हारी कोई भाभी न निकली
    पसंद तो बहुत आई पर कोई सिंगल ही न निकली

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  3. @kapil: agar jahan mein koi bhabhi aani hoti to ab tak aa gyi hoti. ab ummeed chhod do, dunia me aane ke liye wo kafi late hai.. at least 25 saal late (chhoti)! :P

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  4. किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।

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  5. बहुत ही अच्छी लगी मुझे रचना........शुभकामनायें ।
    सुबह सुबह मन प्रसन्न हुआ रचना पढ़कर !

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